रविवार, 27 अक्तूबर 2013

न माँ की सेहत की चिंता

Smart_boy : Young handsome man near window with sexy smile
न माँ की सेहत की चिंता , ना बाप के झुकते कन्धों की ,
तादाद बहुत है इस जग में अक्ल के ऐसे अंधों की !
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ये घंटों यारों संग जाकर चौराहों पर बैठे रहते ,
न फ़िक्र पढ़ाई की इनको न किसी काम और धंधें की !
तादाद बहुत है इस जग में अक्ल के ऐसे अंधों की !
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मित्रों की बाइक पर अक्सर ये मौज मनाते फिरते हैं ,
घरवालों को है नहीं खबर इनके इन गोरखधंधों की !
तादाद बहुत है इस जग में अक्ल के ऐसे अंधों की !
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महंगा मोबाइल लेंगें ये वरना सुसाइड कर लेंगें ,
दहला देते माँ-बाप का दिल क्या कहिये इन हथकंडों की !
तादाद बहुत है इस जग में अक्ल के ऐसे अंधों की !
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ये आसमान में उड़ते हैं नहीं पैर ज़मी पर ये रखते
ठोक-पिटाई वक्त पे हो नए नए इन गुंडों की !
तादाद बहुत है इस जग में अक्ल के ऐसे अंधों की !
शिखा कौशिक 'नूतन'

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

श्यामांगिनि ! तेरा मुखर लास-----डा श्याम गुप्त का गीत----




श्यामांगिनि ! तेरा मुखर लास.....गीत ....

कामिनि! तेरा वह मृदुल हास |
श्यामांगिनि ! तेरा मुखर लास |

जाने कितने उपमा रूपक ,
सज जाते बनकर सृष्टि-साज |
हृद तंत्री में अगणित असंख्य ,
बस जाते मधुमय मदिर राग |
मन के उपवन में छाजाता,
सुरभित अनुपम मधुरिम पराग |

वह मुकुलित कुसुमित सा सुहास ,
कामिनी तेरा वह मृदुल हास ||

वह शुभ्र चपल स्मिति तरंग ,
नयनों में घोले विविध रंग |
तन मन को रंग जाते बनकर,
अगणित बसंत रस रंग फाग |
आँखों में सजते इन्द्र-धनुष ,
बनकर चाहत के प्रिय-प्रवास |

रूपसि ! वह मुखरित विमल लास |
कामिनि ! तेरा वह मृदुल हास ||

मद्दम -मद्दम वह मधुरिम स्वर ,
वह मौन मुखरता की प्रतिध्वनि |
आता ऋतुराज स्वयं लेकर ,
कलियों का आमंत्रण सहास |
अणु अणु में छाजाती असीम,
नव तन्मयता उल्लास-लास |

श्यामांगिनि ! तेरा मृदुल हास |
कामिनि ! तेरा वह मुखर लास


भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता-4 परिणाम विजेता -डॉ .श्याम गुप्त

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता परिणाम विजेता -डॉ .श्याम गुप्त

भारतीय नारी की छवि को लेकर वाकई हम भावुक हो जाते हैं और श्याम गुप्त जी ने हमें वाकई भावुक कर दिया अपनी प्रस्तुति से -प्रविष्टि -१
भारतीय नारी -----कविता ..मम्मी इमोशनल हो गयीं हैं;....
...मम्मी कहाँ हैं पापा !
बैठी हैं तुम्हारे कमरे में- सजल नयन,
वो इमोशनल होगई हैं, और-
विचार कर रही हैं --
सिर्फ यही नहीं कि,
कैसे तुम यहाँ की डोर छोडकर
गयी हो वहाँ,
अज़नबी, अजान डगर,
अनजान लोगों के साथ,
हमारे पास ;
अपितु---साथ ही साथ,
अपने अतीत की यादों के डेरे में...कि—
कभी वह स्वयं भी
अपना घर, कमरा, शहर
छोडकर आई थी ; और---
तुम्हारी ननद भी-
गयी है ,छोडकर ...
अपना घर, कमरा, कुर्सी, मेज़...
इसी तरह.........||
श्याम गुप्त जी उन रचनाकारों में हैं जिन्हें पुरस्कृत कर हम स्वयं सम्मानित अनुभव करते हैं .ब्लॉग पोस्ट पर उनकी मार्गदर्शन करती टिप्पणियां बेहतर लेखन के लिए प्रोत्साहित करती रही हैं .भारतीय नारी ब्लॉग पर उनकी उच्च कोटि की रचनाएँ ब्लॉग की शोभा ऐसे ही बढाती रहेगी ऐसी शुभकामना है .पुरस्कार के रूप में - चर्चित ब्लोगर्स का साझा काव्य-संग्रह -'' शब्द-संवाद ''
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शीघ्र अति शीघ्र आपको डाक द्वारा प्रेषित की जा रही है .
सावन जी व् शालिनी जी का प्रयास भी बहुत सराहनीय है और आशा करती हूँ की आगे भी सभी का सहयोग ऐसे ही बना रहेगा .शीघ्र आने वाली है '' भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -५'' .........
शिखा कौशिक 'नूतन'

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -४[प्रविष्टि -३(रचनाकार -सुश्री शालिनी कौशिक ) ]

दफनाती मुसीबत को ,दमकती दामिनी है .

कोमल देह की मलिका ,ख्वाबों की कामिनी है ,

ख्वाहिश से भरे दिल की ,माधुरी मानिनी है .
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नज़रें जो देती उसको ,हैं मान महनीय का ,
देती है उन्हें आदर ,ऐसी कामायनी है .
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कायरता भले मर्दों को ,आकर यहाँ जकड़ ले ,
देती है बढ़के संबल ,साहस की रागिनी है .
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कायम मिजाज़ रखती ,किस्मत से नहीं रूकती ,
दफनाती मुसीबत को ,दमकती दामिनी है .
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जीवन के हर सफ़र में ,चलती है संग-संग में ,
गागर में भरती सागर ,ये दिल से ''शालिनी'' है .
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शब्दार्थ -महनीय-पूजनीय /मान्य ,कामायनी -श्रृद्धा ,कायम मिजाज़ -स्थिर चित्त ,शालिनी -गृहस्वामिनी .


शालिनी कौशिक
[एडवोकेट ]

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

दिल ऐसे ही तोडा जाता है -लघु कथा


'' बेटा ... ...मेरी तबियत ठीक नहीं है ...तुम प्रिया से मिलने कल चले जाना ...तुम्हारे पापा भी शहर में नहीं है !'' स्मिता ने अपने युवा पुत्र प्रतीक को तैयार होकर बाइक की चाबी उठाते देखकर कहा तो प्रतीक झुंझलाते हुए बोला -'' ओह हो मॉम ..मैं कोई डॉक्टर थोड़े ही हूँ .ये रही फोनबुक इसमें डॉक्टर साहब का नंबर है .तबीयत ज्यादा ख़राब लगे तो फोन करके उन्हें बुला लेना और कामवाली बाई आती ही होगी उससे करवा लेना तीमारदारी ....ओ.के. मॉम .'' ये कहकर प्रतीक ने फोनबुक माँ की ओर उछाल दी और बाइक की चाबी उठाकर फुर्र हो लिया .बाइक को शहर की सड़कों पर लहराते हुए वो एक घंटे में मुलाकात के लिए तय रेस्टोरेंट पर पहुंचा तो प्रिया को वहां इंतजार न करते पाकर उसने प्रिया के मोबाइल पर कॉल की .प्रिया के कॉल रिसीव करते ही प्रतीक बड़े स्टाइल में बोला -'' स्वीट हार्ट व्हाई डिड यु ब्रेक माय हार्ट ...तुमने मेरा दिल क्यों तोडा ?'' प्रिया व्यंग्यमयी स्वर में बोली -'' प्रतीक जी जो बेटा अपनी बीमार माँ का दिल तोड़कर अपनी गर्ल फ्रेंड से मिलने जाता है उसका दिल ऐसे ही तोडा जाता है .आप जल्दी घर आ जाये ....मैं आपके ही घर पर .आपकी मॉम ने मुझे फोन कर बुलाया था ...माँ की तबीयत ठीक नहीं है .डॉक्टर साहब को बुलाकर मैंने चेकअप करवा लिया है और दवाई दे दी हैं .अब आप तीमारदारी के लिए उपस्थित हो जाये क्योंकि आपकी कामवाली बाई भी सबका दिल तोड़कर आज काम पर नहीं आई है .काश आप समझ पाते कि माँ से बढ़कर इस दुनिया में कोई नहीं होता !''
शिखा कौशिक 'नूतन

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार —डा श्याम गुप्त

                 सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार       
           जीवन के उद्धव व विकास के अति-प्रारंभि चरण में जीवनयापन हेतु ऊर्जा प्राप्ति की खोज करते-करते एक अति-लघु जीव-कण( जीव-अणु कोशिका---आर्किया ) ने अपेक्षाकृत बड़े जीव-अणु-कोष-कण ( प्रोकेरियेट) के अंदर प्रवेश किया|  वह लघुजीव-कण अपने मेजबान के  अवशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा /भोजन बनाने लगा एवं इस प्रक्रिया में कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अपने शरणदाता को भी उपलब्ध कराने लगा और शरणदाता,  शरणागत को सुरक्षा व आवश्यक कच्चा-माल | कालान्तर में उनका पृथक अस्तित्व कठिन व असंभव होगया वे एक दूसरे पर आश्रित होगये और दोनों में एक सहजीविता उत्पन्न होगई| यह जीव-जगत का सर्व-प्रथम सहजीवन था | अंततः लघु जीव-अणु .. केन्द्रक (न्यूक्लियस) बना व बड़ा जीव-अणु बाह्य-शरीर( कोशिका या सैल) | इस प्रकार एक दूसरे में विलय होकर सृष्टि के प्रथम एक कोशीय-जीव की संरचना हुई जिससे व जिसके उदाहरण व आधार पर ही आगे समस्त जीव-जगत की रचना, विकास व वृद्धि हुई.....जीवाणु से मानव तक |
      वस्तुतः जीवन व जीव प्रत्येक स्तर पर सहजीवन द्वारा ही विकासमान होते हैं | संसार में अपने स्वको अन्य के स्वसे जोडने पर ही पूर्ण हुआ जा सकता है | प्रत्येक जीव-तत्व व जीव अपूर्ण है और वह सहजीवन द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त करता है| लैंगिक सम्बन्ध, प्रेम, विवाह,  मैत्री व सामाजिक सम्बन्ध आदि सभी इसी सहभागिता एवं अपने स्वके सामंजस्य पर आधारित हैं और इनकी सफलता हेतु ...तीन मुख्य तत्त्व हैं - सामंजस्य,  सहनशीलता व समर्पण |
      हमारे यहाँ लडकी- अर्थात स्त्री, पत्नी अपना घर, परिवार,  समाज,  संस्कार छोडकर पराये घर-पतिगृह आती है,  नए-माहौल में,  नए समाज-संस्कारों में |  लड़का पुरुष, पति  ..तो अपने घर में बैठा है..सुरक्षित,  संतुष्ट, पूर्णता का ज्ञान-भाव ( या अज्ञान-भाव ) लिए हुए| उसका चिंतन कैसे बदले |  स्त्री,पत्नी को ही नए-घर,  समाज-संस्कारों में सुरक्षा ढूंढनी होती है |  
       पति व परिवार की इच्छा,  अपेक्षा व धारणा होती है कि बहू हमारी आने वाली पीढ़ी व संतान द्वारा हमारा प्रतिनिधित्व करेगी व करायेगी,  उसमें संस्कार भरेगी |  हमारा स्वजनों,  परिजनों का भार उठाएगी, अर्थात अपने स्व को हमारे स्व में निमज्जित करेगी |  अतः उसे सम्मान मिलता है|  यहाँ यह भी एक सच है कि पति व उसके परिवार को भी अपना चिंतन गुणात्मक करना होगा | पति को, पुरुष को,  लड़कों को भी अपना चिंतन बदलना होगा अपने स्व को पत्नी, स्त्री, बहू के स्व से तादाम्य करना होगा ताकि नया प्राणी तादाम्य बिठा पाये |    
        यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है|  पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से,  ऐंठ-अकड से |  नए मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी|  अतः उसे बदले हुए देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि की दीवार खड़ी होती है |
     यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से न जोडकर अपनी स्वतंत्र पहचान,  केरियर व सुख हेतु या पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाव वश,  गृहकार्य से दूर पुरुषवत जीने की ललक रखती है तो वह अपनों के बीच ही संघर्षरत होकर अलग-थलग पड जायगी एवं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने लगेगी|  इस प्रकार स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर पुरुषोचित अहं के भाव व करियर सुख के द्वंद्वों, झगडों की स्थिति से पारिवारिक विघटन की राह तैयार होती है |
     सिर्फ अपने स्व में जीने की ललक में एक अच्छी पत्नी व माँ खोजाती है | वह सिर्फ एक स्त्री मात्र रह जाती है, अपने बराबर अधिकार के लिए संघर्षरत स्त्री,  एक प्रगतिशील व आधुनिक नारी,  अपने स्व के लिए जीती हुई मात्र बुद्धि पर यंत्रवत चलता हुआ संवेदनशून्य जीवन जीती हुई ...एक भोग्या;  न कि दायित्व के भार की गुरु-गंभीरता ओढ़े, नारीत्व के अधिकार की अपेक्षा,  नारीत्व के कर्तव्य व प्रेम द्वारा सम्माननीय साधिकार,  अधिकार जताती हुई सखी, मित्र, प्रेमिका व पत्नी एवं मातृत्व की महानता व दैवीयभाव युत महान व सम्माननीय माँ |
     ऐसे परिवार संतान को क्या देंगे...न संस्कार न मूल्य |  बस अपने स्वके लिए, शरीर के लिए,  सुख के लिए जीना |  धर्म,  अध्यात्म,  सहिष्णुता, सामाजिकता,  संस्कार व आनंद के भाव कहाँ उत्पन्न हो पाते हैं,  जो एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक हैं |  बस समाज एक जंतु-प्राणी की योनि जीता है- भोग व रोग के साथ, द्वंदों- द्वेषों के साथ,  न कि भोग व योग के साथ; समता, सामंजस्य के सौख्य के साथ, आनंद के साथ |  यही तो आज हो रहा है जो नहीं होना चाहिए |
        

छात्रा से किया 75 बार बलात्कार

एक अध्यापक ने चौथी क्लास की अपनी शिष्या से बलात्कार करना शुरू किया तो 75 बार कर डाला।
इसलिए सब अपने बचे बच्चियों के टीचरों पर सतर्क दृष्टि ज़रूर रखे. पूरी ख़बर पढने के लिए अखबार की कटिंग देख लें.

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

‘ करवा चौथ जैसे त्यौहार क्यों मनाये जाते हैं ?’


' करवा चौथ जैसे त्यौहार क्यों मनाये  जाते  हैं ?'


अरी सुहागनों ! जरा धीरे से हंसो ,
यूं ना कहकहे लगाओ
जानते हैं आज करवा चौथ है ,
पर तुम्हारी  कुछ माताएं ,
बहने ,बेटियां और सखियाँ
असहज महसूस कर रही हैं आज के दिन
क्योंकि वे सुहागन नहीं हैं !!
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वर्ष भर तुमको रहता है
इसी त्यौहार का ;इसी दिन का इंतजार ,
पर जो सुहागन नहीं हैं
उनसे पूछो इस त्यौहार के आने से पूर्व के दिन
और इस दिन कैसा सूनापन
भर जाता है उनके जीवन में !
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अरे सुनती नहीं हो !
धीरे चलो !
तुम्हारी पाजेब की छम-छम
'उन' की भावनाओं को आहत कर रही हैं ,
वे इस दिन कितना भयभीत हैं !
जैसे किसी महान अपराध के लिए
वर्ष के इस दिन दे दी जाती है
उन्हें 'काले पानी ' की सजा !
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इतना श्रृंगार  कर ,
चूड़ियाँ खनकाकर ,
हथेलियों पर मेहँदी रचाकर,
लाल साड़ी पहनकर ,
सिन्दूर सजाकर
तुम क्यों  गौरवान्वित हो रही हो
अपने सौभाग्यवती होने पर  !
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कल तक कितनी ही तुम्हारी
जाति  की यूं ही होती थी गौरवान्वित
पर आज चाहती हैं छिपा लें
खुद को सारे ज़माने से इस दिन
ऐसे जैसे कोई  अस्तित्व ही नहीं है
उनका इस दुनिया में !
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ये भी भला कोई सौभाग्य हुआ
जो पुरुष के होने से है अन्यथा
स्त्री को बना देता है मनहूस ,
कमबख्त और हीन !
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ऐसे त्यौहार क्यों मनाये  जाते  हैं ?
जो स्त्री -स्त्री को बाँट  देते  हैं ,
एक  को देते  हैं हक़
हंसने का ,मुस्कुराने का
और दूसरी को
लांछित कर ,लज्जित कर ,
तानों की कटार  से काँट देते हैं !
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शिखा कौशिक 'नूतन'

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -४ प्रविष्टि -२ [रचनाकार -श्री तरुण कुमार 'सावन' ]

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -४ प्रविष्टि -२ [रचनाकार -श्री तरुण कुमार 'सावन' ]
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कविता– देश का भेष [– तरूण कुमार,सावन]
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बदलने को तो देश का भेष कम नहीं बदला ।
मांग का सिंदूर हाथों में मेहंदी का चलन नहीं बदला ।
मां का ममतामई आंचल दुध का रंग नहीं बदला ।
बहन का प्यार वो राखी का बंधन नहीं बदला ।
बेटियां आगन का फूल बाप के कंधों का बोझ नहीं बदला ।
घर के चिरागों की खातिर अजन्माओं की हत्या का
सिलसिला नहीं बदला ।
व्रत रखें कोई सावित्री, सीता की अग्निपरीक्षा का
मंजर नहीं बदला ।
सदियां बदली हैं,जमाना बदला हैं, यूं तो औरत का
रूप-रंग कम नहीं बदला ।
मगर औरत की आंखों से अश्कों का रिस्ता नहीं बदला ।
बदलने को तो देश का भेष कम नहीं बदला ।
तरूण कुमार `सावन`
नाम – तरूण कुमार,सावन
शिक्षा- एम.ए (समाज शास्त्र)
अमर उजाला काँम्पैक्ट, अमर उजाला, डी एल ए, आदि समाचार पत्रों में लेख शायरी,लधुकथा, कविता प्रकाशित।
चौथी दुनिया समाचार पत्र व राजकमल प्रकासन समूह से लेखन विधा सम्मान से सम्मानित।
प्रस्तुतकर्ता -शिखा कौशिक 'नूतन '