शनिवार, 24 मार्च 2012

’ इन्द्रधनुष’ --- अंक सात का शेष --- स्त्री-पुरुष विमर्श पर.....डा श्याम गुप्त का उपन्यास....



                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      

        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास........पिछले अंक से क्रमश:......
                                          अंक सात का शेष

                                ’ सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आरहीं हैं । एक ब्राह्मणवादी दूसरी ब्राह्मण विरोधी, जो अम्बेडकर वादी विचारा धारा है, जिसमें समता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय की बात है । और अभिजात्य चरित्र का वर्ग सदैव ही जनवादी चरित्र के वर्ग पर अन्याय-अत्याचार करता आया है ।'  जयंत कृष्णा ने, जो बाबासाहब अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित था, यह बात केन्टीन में समता-समानता के ऊपर होरहे वार्तालाप के मध्य कही ।’
             'नहीं यार, एसा नहीं है,'   मैंने कहा, ' भारत में तो अभिजात्य व जनवादी चरित्र अलग रहा ही नहीं । चरित्र तो व्यक्ति व आत्मा का व्यापार है, अलग अलग कैसे होसकता है ? कार्यक्षेत्र, काम, व्यवहार, जीवन-जगत, उठना-बैठना अलग-अलग हो सकते हैं;  व्यक्ति, देश, काल के अनुसार; पर चरित्र शाश्वत है जो भारत में कभी अलग-अलग नहीं रहा। यहाँ राजा भी चौके में कपडे उतारकर भोजन करता था,  दैनिक वेतन भोगी भी, साधू भी, गृहस्थ भी ।'
              'यहाँ तो राजा-महाराजा,चक्रवर्ती सम्राट भी साधू-संतों के पधारने पर अपना सिंहासन व सर्वस्व भी उनके पैरों पर रख देते थे।  यह अद्यात्म, ज्ञान,त्याग, विद्वता, मुमुक्षा, आत्मसंतोष व सात्विकता को भौतिकता का नमन था, जो आत्मभाव में तुष्टता व अहंभाव के त्याग के बिना नहीं हो सकता।   यही अहं  का त्याग व आत्मसंतुष्टि भाव,  अध्यात्म व भौतिकता के समन्वय द्वारा जीवन जीने की भारतीय कला की रीढ़ है । यही अभिजात्य व जनवादी चरित्रों का समन्वय भारतीय नीति, राजनीति व कर्मनीति का आधार है ।'
              ' हाँ,  पराधीनता की बेड़ियों में अधर्मी, अहंकारी. व्यक्तिवादी , चारित्रिक रूप से कृषकाय विदेशी शासकों के शासन में  कुछ दुर्वल-चरित्र हुए भारतीय शासक या अभिजात्य वर्ग अपना जनवादी चरित्र भूलकर अपने शासकों का चरित्र अपनाने लगे थे और इसप्रकार की धारणाएं बनने लगीं जो तुम व्यक्त कर रहे हो ।'
              'और जयंत ! तुम भ्रम में हो । ये धाराएं वास्तव में देव- संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ   हैं क्योंकि न तो राम ही ब्रह्मण थे न कृष्ण ही, जबकि रावण ब्राह्मण था परन्तु ब्राह्मण विरोधी । राम व कृष्ण ब्राह्मण विरोधी नहीं थे । अम्बेडकर  तो तब थे ही नहीं तो वह धारा सदियों से हो नहीं सकती ।', सुमि ने कहा ।
              ' वस्तुतः वे ब्रह्म विरोधी, अर्थात ईश्वर नहीं है, मानव ही सब कुछ है  एवं ब्रह्मवादी  कि  ईश्वर है एवं मानव के अच्छे -बुरे कर्म का फल मिलता है,  ये दो धाराएं हैं ।  और समानता का अर्थ समता नहीं हैं। यदि सब सामान होजायं,  सारे पर्वत समतल कर दिए जायं; तो न मेघ बनेंगे, न वर्षा होगी, न नदी बहेगी न हरियाली होगी, न सागर न जीवन ।  राजा, मंत्री, प्रजा सबके अधिकार समान कैसे  हो सकते हैं ?  बालक, वृद्ध, युवा सबसे समान व्यवहार नहीं किया जा सकता ।   वास्तव में समता-समानता के लिए ...सब समान हों या स्वतन्त्रता की नहीं अपितु सत्य, न्याय, यथायोग्य, यथोचित- व्यवहार, कर्तव्य व अधिकारों की बात  होनी चाहिए ।'  सुमि ने आगे जोड़ा ।
                ' यदि मैं अपनी तरह से अर्थात खुलकर कहूं तो सारे स्त्री-पुरुष समान भाव होकर साथ-साथ नंगे सो सकते हैं क्या ?  यह तो तभी होसकता है जब या तो सभी संत बन जायं या जड-पदार्थ, अर्थात जीवन  रस रंग रहित पृथ्वी ...।'  ए के  जैन ने जोर जोर से हंसते हुए कहा ।
                'वास्तव में मुख्य बात तो वही है कि मानव-मानव में प्रेम व समरसता बढे;  जाति, धर्म, भेद भूलकर  राष्ट्र व मानवता के व्यवहार में सभी एक जुट होकर कार्य करें,  यही समता है और मानवतावादी धारा.... ब्रह्मधारा.... जीवन धारा । यदि बावा साहब भी इसी समता की बात करते हैं तो इसमें अनुचित क्या है ? ',  मैंने जयंत की तरफ देखते हुए कहा,  ' कीप इट अप यार ! लैट द  डिस्कशन गो ऑन, इट ब्रिंग्स बटर फ्रॉम मिल्क ।'  चलने दो मित्र बहस जारी रहनी चाहिए ।'
             ' मथे न माखन होय ।'  सुमित्रा ने जोड दिया ।
             ' और जयंत जी , साम्प्रदायिकता व अहिंसा के बारे में आपके क्या विचार हैं ?' सुमि ने पुनः विषय को छेड़ते हुए कहा ।
             ' मेरे विचार में  अशोक, अकबर व गांधी सच्चे अहिंसावादी थे, साम्प्रदायिकता विरोधी । हिंसा देखकर जिनका  ह्रदय परिवर्तन हुआ, करुणा जागृत हुई ।'  जयंत ने कहा ।
             ' हाँ सामान्यतः विचार यही है ।  पर इन तीनों का ह्रदय परिवर्तन व्यक्तिगत घटनाओं के कारण हुआ ।  स्वभावजन्य, स्वाभाविक परमार्थजन्य भाव से नहीं, जो भारतीय जन मानस के विचार की रीढ़ है, व्यवहार की धुरी है ।  यह जन्मजात स्वाभाविक भाव नहीं था अपितु, " नौ सौ चूहे खाय बिलाई हज को चली" बाली बात है । यह राम-कृष्ण वाली आदर्श स्थिति नहीं है । इसीलिये सभी जनमानस उन्हें महान तो मानता है कि " जब आँख खुले तभी सवेरा "   परन्तु सर्वकालीन आदर्श नहीं ..जैसे राम-कृष्ण को ।'  मैंने स्पष्ट करते हुए कहा ।
              ' राम-कृष्ण , महाकाव्यों के पात्र भर हैं या वास्तविक व्यक्ति, इतिहास-पुरुष ?' जयंत ने अपनी शंका जाहिर की ।
              ' वैसे तो राम-कृष्ण कोई काल्पनिकं पात्र नहीं हैं अपितु इतिहास पुरुष हैं । कालान्तर में विभिन्न चमत्कारिक घटनाओं का इसे चरित्रों के साथ जुड़ जाना कोई नवीन तथ्य नहीं है । परन्तु साथ में ही यदि इन्हें काल्पनिक पात्र मान भी लें तो भी राम-कृष्ण कोई काल्पनिक व्यक्तित्व नहीं हैं,  वे सदैव,  हर युग में, समाज में होते हैं । काव्य व  साहित्य में पात्र का निर्धारण साहित्यकार कैसे करता है ?  उसके पात्र समाज में सदैव ही होते हैं ।  कृतिकार उनके चरित्र को अपने मंतव्य व अनुभव के अनुसार कृति में  जीवंत करता है ।  वे पात्र जीवित विशिष्ट पुरुष या इतिहास पुरुष या जीवित सामान्य जन कोई भी होसकता है ।  हमारे भारतीय साहित्य, साहित्यिक कृतियों में काल्पनिक चरित्रों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है ।  उसके लिए 'गल्प' नाम से पृथक विधा है जिसमें पात्र व काव्य पूर्णतया काल्पनिक होते हैं, यद्यपि तथ्य व विषय वस्तु, सामाजिक व काल सापेक्ष होते हैं । पाश्चात्य विद्याएँ -फेंटेसी  या वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित काल्पनिक विज्ञान कथाएं  इस श्रेणी में आती हैं ।'
                ' चलो वार्ड ड्यूटी पर जाना है ', सुमि ने ध्यान दिलाया  ।

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                                    " सामाजिक एवं प्रतिरक्षण विभाग"  के प्रोजेक्ट के तहत हम लोग चिकित्सा विद्यालय के समीप एक कालोनी में टीकाकरण-टीम बनाकर घर-घर घूम रहे थे । एक कालोनी में एक युवा महिला के तीसरे बच्चे को टीका लगाते हुए मैंने पूछा कि तीनों बच्चे स्वस्थ रहते हैं तो अचानक वह युवती हंसने लगी ।  मैंने सिर उठाकर देखा तो वह मुस्कुराकर कहने लगी,  ' तुम श्रीकिशन हो ना ?'
            ' हाँ, पर तुम ....?' मैंने आश्चर्य से प्रश्नवाचक नज़रों से पूछा ।
             'भूल गए हो, मंदिर वाला स्कूल, वेवकूफ भुलक्कड़, वो थप्पड़ ....।'
            ' माया !.....तुम, यहाँ ! और ये तीन बच्चे ? तुमने तो अचानक स्कूल आना बंद कर दिया था ?'
             'चलो याद तो आया, मेरी सगाई हो गयी थी न ।'
             सगाई ! पांचवी क्लास में ?' मैंने आश्चर्य से पूछा ।
             ' अरे,  मैं तो १३ साल की थी,  तुमसे चार वर्ष बड़ी । तुम डाक्टर होगये हो न ।'
             सुमि हँसने लगी , " ओल्ड हेबिट्स डाई हार्ड ।"
             ' तुम्हारी शादी होगई ?' माया ने पूछा ।
             ' अभी ढूंढ रहे हैं,  तुम्हारे जैसी सुन्दर लड़की ।'  सुमित्रा खिलखिलाकर कहने लगी । माया मुस्कुराकर बच्चों को चुप कराती हुई अन्दर चली गयी ।
                ' मैं जानती हूँ तुम्हें कितना बुरा लगता है यह सब देखकर ।  पर वह तो सुखी है अपने संसार में । संतुष्ट व सुखी जीवन होना चाहिए, फिर चाहे जिस स्तर पर हो । यही महत्वपूर्ण है ।  सब्जबागों का कोई अंत नहीं है ।'  सुमि कहती गयी ।  
                 ' यद्यपि अधिकतर स्त्रियों की यही विडम्बना है अपने देश में । कम उम्र में शादी, जल्दी मातृत्व और कई बच्चे । तभी तो यहाँ  "शिशु व मातृ मृत्यु दर"  बहुत अधिक है ।' सुमि ने कहा ।  
                " व्हाट शुड बी डन ?"  सुमित ने सोच कर कहा ।
               " सबको शिक्षा का प्रचार -प्रसार",  विशेषकर स्त्री शिक्षा, एक मात्र लॉन्ग-टर्म ( दूर गामी ) उपाय है । शार्ट -टर्म के रूप में "घर घर स्वास्थ्य परीक्षण कार्यक्रम" इसका उत्तर है ।' सुमि बताने लगी ।
               ' दैट इज व्हाई वी आर हीयर '...सुधा ने बात समाप्त करते हुए कहा ।
               पर सुमि बात समाप्त करने के मूड में नहीं थी । बोली , ' वैसे बात यहाँ समाप्त नहीं होती। स्त्री शिक्षा की कमी के कारण ही भारतीय समाज में तमाम कुप्रथाएँ प्रचलन में आगईं हैं ।  नारी शिक्षा  व स्वास्थ्य की अवहेलना का सीधा अर्थ है सारे परिवार, पुरुष, पति, बच्चे , पिता- सभी का सामंती युग में रहना , वैसा ही पारिवारिक एवं तदनुसार सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण ।  इसी वातावरण के चलते पढी-लिखी बहुएं, लड़कियां भी उचित व युक्ति-युक्त विरोध नहीं कर पाती  और पारिवारिक उत्प्रीडन, स्त्री को पैर की जूती  समझना व दहेज़ जैसी कुप्रथाएँ, जिनके दूरगामी परिणाम स्वरुप बहुएं जलाना, बहुओं - लड़कियों द्वारा आत्महत्या आदि कुप्रथाएँ फ़ैली हुईं हैं ।  महिलाओं को स्वयं शिक्षित व जागरूक होकर इनसे डटकर लोहा लेना होगा । पुरुषों का भी दायित्व है की स्वयं के, भावी संतति के परिवार व देश- समाज के व्यापक हितार्थ महिलाओं का साथ दें । ताली दोनों हाथ से बजती है ।'
                 ' क्या मैंने कुछ गलत कहा, कृष्ण ?'
                 'हूँ '
                ' हूँ, क्या? अभी  तक माया के ख्याल में खोये हुए हो ?'
                 'हाँ, विसंगतियों के दो ध्रुवों पर मंथन कर रहा हूँ । एक तरफ माया, दूसरी तरफ सुमित्रा जी ।'
                             सब हँसने लगे तो सुमित्रा बोली , ' चलो चलो आगे चलो ।'

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                                            ' भारतीय थल सेना में विशेष शार्ट-सर्विस कमीशन का विज्ञापन आया है, चिकित्सा सेवा कोर के लिए । चतुर्थ वर्ष में ही द्वितीय लेफ्टीनेंट की पे व पोस्ट देंगे, फाइनल ईयर में केप्टन की । इंटर्नशिप भी नहीं करनी है सीधे पोस्टिंग । बाद में नियमित सेवा में भी आफर दिया जायगा ।' विनोद ने उत्साहित होते हुए बताया ।
               ' वाह ! एक फ़ार्म मेरे लिए भी ले आना ।' मैंने आग्रह किया ।
               दूसरे दिन सुमित्रा ने आकर हैरानी से पूछा , ' कृष्ण, क्या तुम भी सेना-चिकित्सा का फ़ार्म भरोगे ?'
               ' हाँ, क्यों ?'
              ' क्या क्या करोगे, केजी ? तुम वहां क्या करोगे ? वहां भी कविता करोगे क्या ।'
              ' क्यों ? क्या मैं यहाँ सिर्फ कविता करता हूँ, और कुछ नहीं, पढ़ता-लिखता नहीं हूँ क्या ? और क्या मैं सेना में नहीं जा सकता ।'
              ' मेरा मतलब है',  वह सकपका कर बोली, '  मिलिट्री का अनुशासन, नीरस लाइफ और केजी, कवि- ह्रदय  केजी, समाज-सुधार की आवाज लगाते हुए कृष्ण ।  क्या रुक पाओगे तुम वहां ?  वहां तो आर्डर होता है और पालन करना । न तर्क न व्याख्या ।'
               ' हुज़ूर, मुझे कोई लड़ना थोड़े ही है ।  डाक्टरी कहीं भी की जा सकती है । एक ही बात है ।'
               ' पर रिस्क फेक्टर तो है ही ।'
               तो यह बात है । किसी को तो रिस्क लेना ही पड़ता है । कर्नल साहब की भाँति। रिस्क फेक्टर तो सड़क चलते भी होता है  तो क्या चलना बंद कर देते हैं।?'
               'क्या कोई और कारण तो नहीं ?' सुमि कुछ रुक कर बोली ।
                ' अरे नहीं सुमि !,  मैं भी इन्द्रधनुषी जीवन का हर रंग, हर भाव, हर लम्हा जीना चाहता हूँ ।'
               ’ पर कुछ अच्छा नहीं लग रहा । खैर जो इच्छा ।’
                          विनोद और मैं व सतीश चुन लिये गये । परन्तु कुछ समय बाद जब युद्ध विराम होगया तो वह स्कीम ही निरस्त होगयी । सुमि ने बडे उत्तेज़ित होते हुए बताया, ’ वह स्कीम ही केन्सिल होगयी, अब क्या ?  चलो अच्छा हुआ ।’
               ’ कहीं तुमने कोई षडयन्त्र करके तो कैन्सिल नहीं करवा दी ?’  मैने कहा तो वह आश्चर्य  से देखने लगेी ।
                ’ मेरा मतलब है कि तुम नही चाहती थीं और तुम्हारेी इच्छा पूरी होगयी । क्या वास्तव में प्रार्थना में इतनी शक्ति होतेी है ?’
                 हां, सो तो है,  अगर मन से की जाय, वह मुस्कुराकर बोली ,’ चलो आज मैं काफ़ी पिलाती हूं ।’
                 हम भी चलेंगे, और अपना-अपना पेमेन्ट नहीं करेंगे ।  हमारी भी तो नौकरी चली गयी है, मिलने से पहले ही । शायद केजी के चक्कर में।’  विनोद और  सतीश बोले ।        

                                       ------ अंक सात समाप्त ......क्रमश: अन्क आठ अगली पोस्ट में....          
            

4 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

बहुत अच्छी श्रृंखला |

आभार ||

sangita ने कहा…

achha lagta hae aapka aalekh padh kar sdaev hi bdhai.

Shikha Kaushik ने कहा…

rochak ...aabhar

डा श्याम गुप्त ने कहा…

----धन्यवाद शिखा जी, एवं रविकर जी
----धन्यवाद ..सन्गीता जी ...आभार..